ठूठ हो गए हरे भरे ..

खरपत की बहार है….

घोंसला उजाड़ है ..बसेरा चाहता नहीं !

चोंच वाले चुग रहे हैं..

अपने ही पर कुतर कुतर..

चहचहाना अब भाता नहीं।

अंधेरे उगल रहे हैं तेरे दीए…

जो जलाए थे आस में..

नींद में ना खलल डाल…

कौन जागता है सही …?

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